रूड़की। ( आयुष गुप्ता )
ईद उल फितर मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। मुसलमानों का मुकद्दस रमजान और ईद आज भी प्राचीन परंपरा के अनुसार ही मनाए जाते हैं। रमजान का चांद दिखते ही शहर-गांव सब जोरदार धमाकों की आवाज से गूंज उठते हैं। यह आवाजें और पटाखों की होती हैं जो रमजान के इस्तकबाल के लिए दागे जाते हैं, साथ ही मस्जिदों से भी चांद देखे जाने का ऐलान किया जाता है, इसके अलावा आधिकारिक रूप से शहर मुफ्ती और शाही इमाम चांद देखे जाने की औपचारिक घोषणा करते हैं। चांद का दीदार होते ही फिजा में खुशबू बिखर जाती है। लोग कपड़ों में खुशबू के लिए इत्र और घरों व मस्जिदों में खुशबू के लिए अगरबत्ती का इस्तेमाल करते हैं। प्रशासन की ओर से नगर में अच्छी साफ-सफाई कराई जाती है। लोग एक दूसरे को रमजान की मुबारकबाद देते हैं। गली-कूचे रमजान मुबारक की सदाओं से गूंज उठते हैं। सड़कों की रौनक बढ़ जाती है। शहरों के विभिन्न हिस्सों में सजने लगती हैं दूध, सिंवइयों की दुकानें और टोपियों की दुकानें। रोजा आत्म संयम का प्रतीक है। इबादत का, नेकनीयत का यानी रोजेदार को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना होता है, वह पानी भी नहीं पी सकता और इबादत में मशरूफ रहता है। पूरे रमजान विशेष नमाज तरावीह पढ़ी जाती है। महीने भर के रोजों की पूर्णाहुति के बाद रमजान के 29 तारीख को बड़े और बच्चे बड़ी उत्सुकता से चांद को देखते हैं। चांद नजर आ जाए तो फिर उनकी खुशियों का क्या ही कहना। 29 रमजान को चांद ना भी नजर आए तो 30 तारीख को रमजान जैसे ही महापर्व की पूर्णाहुति के बाद शव्वाल की 1 तारीख को ईद मनाई जाती है। ईद पर बच्चे-बूढ़े और जवान अपने दिल की उमंगे निकालते हैं, किंतु इस्लाम ने दिल की उमंगे निकालने के जो नियम निर्धारित किए हैं उसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती।मुसलमानों के त्योहार विशेष रूप से ईद को सभ्यता, स्वच्छता, आत्मसम्मान भाईचारा, प्यार-मोहब्बत, परस्पर सहिष्णुता और सबसे बढ़कर आत्म संयम के उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है। धर्म और मानवता के उच्च आदर्शों पर आधारित यह पर्व इस्लाम की सच्ची शिक्षा का घोतक है। यह अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ घर लौटना, वापस आना होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसका भावार्थ ईश्वर के बिछुड़े हुए बंदों का अपने असल स्वामी से आ मिलना, भटके हुए लोगों का अल्लाह (ईश्वर) की शरण में लौट आना और आपस में बिछुड़े हुए भाई का भाई से मिलना,सारे किना-कपट, क्रोध को त्याग कर सच्चे-स्वच्छ हृदय से गले मिलना है। प्रसिद्ध बुजुर्ग शेख अब्दुल कादिर मोहिद्दीन जिलानी रह० ने ईद पर अपनी एक कविता में फरमाया है कि… ईद उसकी नहीं जिसने नए कपड़े पहने, ईद तो उसकी है जिसने परलोक की पकड़ के डर से जीवन के नए आयाम अपनाए। ईद उसकी नहीं जो शानदार सवारी पर सवार होकर शान से ईदगाह पहुंचा, ईद तो उसकी है जिसने अपने पापों का प्रायश्चित किया।ईद उसकी नहीं जिसने खूब बढ़-चढ़कर पकवान बनाए, ईद तो उसकी है जिसने बहुत से सुकर्म किए। बहरहाल ईद सत्कर्मों का ऐसा महापर्व है, जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। इस मुबारक मौके पर हमें उन शिक्षाओं का पूरा ख्याल रखना चाहिए जो हमारे प्यारे रसूल पैगंबर इस्लाम हज़रत मोहम्मद सल्ल० से हमें प्राप्त हुई है। हर सक्षम मुसलमान को अपनी ओर अपने बाल-बच्चों की तरफ से सदका-फित्र गरीब व जरूरतमंदों को देना अनिवार्य है। अपने नादार और मुफलिसी भाइयों को अपनी खुशियों में शरीक करके अल्लाह और उसके बंदों में कृपा का पात्र बनना चाहिए। पाठकों को ईद की भावभीनी मुबारकबाद और शुभकामनाएं पेश करते हुए अपेक्षा की जाती है कि ईद के अवसर पर अपने जीवन में इस्लाम के उच्च आदर्शों को उतारने का प्रण लेंगे तथा उस पर जीवन भर कायम रहेंगे।

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