रुड़की।  ( बबलू सैनी ) सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों लोगों ने देश के नाम हंसते-हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। क्रांति की इस ज्वालाओं से रुड़की भी अछूती नहीं रही। यहां के किसानों ने अंग्रेजी हकूमत का कड़ा प्रतिवाद किया था। परिणाम स्वरुप सैकड़ों लोगों को यहां स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर लटका कर फांसी दे दी गई थी। आजादी की शानदार विरासत को समेटे यह वटवृक्ष आज भी पूरी शान के साथ खड़ा हुआ है। इस पवित्र स्थल पर प्रति वर्ष 10 मई को स्थानीय निवासी इकट्ठा होकर आजादी के शहीदों को अपनी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। रुड़की वासियों के अदम्य साहस और देशप्रेम की गाथा कहता यह विशाल वटवृक्ष सुनहरा ग्राम में स्थित है। बताया जाता है कि अट्ठारह सौ सत्तावन में जब स्थानीय किसानों, गुर्जरों एवं झोजों ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष का झंडा बुलंद किया, तो अंग्रेजी शासकों के हाथ पांव फूल गए। बहुत सारे अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया, इससे तिलमिलाऐ अंग्रेजों ने आजादी के मतवालों को सबक सिखाने के लिए इलाके में कत्लेआम का वह तांडव मचाया, जिसकी कहानियां आज भी कही सुनी जाती हैं। मतलबपुर और रामपुर गांव के निर्देशों को पकड़कर फांसी दे दी गई। 10 मई 1857 को 100 से भी अधिक क्रांतिकारियों को इस पर लटका कर फांसी दे दी गई थी। बताया जाता है कि रुड़की एवं सहारनपुर में ब्रिटिश छावनी होने के कारण यह जरूरी था कि स्थानों पर शांति रहे, ताकि विद्रोह की हालत में सेना अन्य स्थानों पर आसानी से पहुंच सके। जन विद्रोह को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने इसलिए सैकड़ों देशभक्तों को फांसी पर लटका कर शांति कायम करने का प्रयास किया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले 1824 में भी गांव में ग्रामीणों ने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी। सहारनपुर के तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट सर रॉबर्ट्स ने ग्रामीणों को इस वट वृक्ष पर लटका कर फांसी दे दी थी। इसके लिए अंग्रेजों ने विशेष रुप से इस वट वृक्ष पर कुंडे एवं जंजीरे लगवाई थी। आजादी के बाद तक लोगों ने इन कुंडों को देखा भी है, लेकिन बाद में यह कुंडे और जंजीरे निकाल ली गई। ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि 22 नवंबर 1930 की बहादराबाद, रुहालकी तथा किशनपुर में अंग्रेजों ने अमानवीय अत्याचार किए। 3 दिसंबर 1930 को झबरेडा क्षेत्र में भी ब्रिटिश पुलिस ने जबरदस्त लाठीचार्ज किया था। सन् 1942 में अगस्त क्रांति के दौरान ऋषिकुल आयुर्वेद कॉलेज के 16 वर्षीय छात्र जगदीश प्रसाद ने तिरंगे की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इस वट वृक्ष पर उन लोगों को फांसी दी जाती रही, जिन्हें ब्रिटिश न्यायालय ने मुलजिम करार दे दिया था। रामपुर के निवासी तथा स्वतंत्रता संग्राम उत्तराधिकारी डॉ. मोहम्मद मतीन का कहना है कि अपने बचपन में उन्होंने इस वट वृक्ष पर लगे कुंडों को देखा था। स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय हकीम मोहम्मद यासीन के बेटे डॉ. मतीन बताते हैं कि अपने पिता से उन्होंने अंग्रेजों के जुल्म और देशवासियों के अदम्य बलिदान की गाथा सुनी, जिस जगह वटवृक्ष स्थित है, वहां लंबे अरसे तक घना जंगल था, उस समय सुनहरा गांव का अस्तित्व तक नहीं था। स्थानीय निवासी स्वर्गीय ललिता प्रसाद ने सन् 1910 में इस वट वृक्ष के आसपास की जमीन को खरीदकर इसे आबाद किया। यहां की रेत लाल होने के कारण इस जगह का नाम सुनहरा पड़ा। आजादी के बाद इस वट वृक्ष के नीचे 10 मई 1957 को पहली बार एक विशाल सभा आयोजित कर यहां शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई थी। यह सिलसिला अब तक जारी है और अब इस जगह को एक भव्य रूप दे दिया गया है, जहां पर बड़ी संख्या में आकर क्षेत्रवासी 10 मई को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

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