रुड़की। ( इमरान देशभक्त )
ईद-उल-अजहा का दिन एक अज़ीम घटना की यादगार के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन मुसलमान पूरी धार्मिक श्रद्धा के साथ जानवरों को अल्लाह की राह में कुर्बान करते हैं। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक दस तारीख को ईद-उल-अजहा मनाया जाता है। जिलहिज्जा हज का भी महीना कहलाता है। इस्लाम में इस महीने के पहले दस दिन अल्लाह की इबादत के लिए विशेष माने जाते हैं। इस महीने में हजरत इब्राहिम
अलैहिस्सलाम और उनके बेटे हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम ने अल्लाह के आदेश पर बैतुल्लाह शरीफ, खाना-ए-काबा (सऊदी अरब) का निर्माण किया। उसी स्थान बैतुल्लाह शरीफ पर प्रत्येक वर्ष जिलहिज्जा माह की नौ तारीख को दुनियाभर के मुसलमान यहां हज करने पहुंचते हैं। इसी महीने में दसवें दिन ईद की नमाज के बाद मुसलमान अल्लाह की राह में जानवरों की कुर्बानी देते हैं और कुर्बानी का यह सिलसिला तीन दिनों तक चलता रहता है। हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के एक बेटे थे हजरत इस्माइल। अल्लाह की तरफ से हजरत इब्राहिम को पैगाम आया कि वह अपने बेटे को अल्लाह के नाम पर कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाए, तो वह तैयार हो गए और उन्होंने जैसे ही अपने बेटे को यह पैगाम सुनाया तो वह भी कुर्बानी के लिए तैयार हो गए। अल्लाह के पैगंबर हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने सपना देखा कि वह अपने बेटे को जिबह कुर्बान कर रहे हैं, इस सपने को देखने के बाद हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम अल्लाह के इस आदेश का पालन करने के लिए तैयार हो जाते हैं। दोनों बाप-बेटे कुर्बानी स्थल पर पहुंचते हैं। बार-बार कोशिश करने के बाद भी हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम की गर्दन पर छुरी काम नहीं कर पाती, इतने में खुदा की आवाज आती है कि इस नेक कोशिश के बाद बेटे की कुर्बानी के स्थान पर अन्य जानवर की कुर्बानी कबूल की जाती है, तबसे लेकर आज तक मुसलमान इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए भेड़, बकरी, ऊंट आदि को अल्लाह की राह में कुर्बान चार हजार वर्षों से कर इस सुन्नत को जिंदा कर रहे हैं। हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की कुर्बानी वाली याद को ही मुसलमानों पर जरूरी कर दिया गया और कुर्बानी करने वालों से बहुत बड़े सवाब का वादा किया गया है। कुर्बानी के बारे में मालूम किया गया कि यह क्या चीज है तो प्यारे नबी सल्ल.ने फरमाया कि यह हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है। ईद-उल-अजहा की नमाज अदा करने के बाद कुर्बानी का वक्त शुरू होता है और जहां पर ईद-उल-अजहा की नमाज अदा की जाती है, वहां फजिर की नमाज के बाद से ही कुर्बानी की रस्म भी अदा की जाने लगती है।कुर्बानी एक अहम इबादत है, इसकी शुरुआत हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम के एक आजमाइशी वाकये से शुरू हुई, तभी से दुनिया भर के तमाम मुसलमान अल्लाह के नाम पर जानवरों को कुर्बान करके इस त्यौहार को मनाते आ रहे हैं। इस त्यौहार का मकसद सिर्फ खून बहाना और गोश्त खाना ही कुर्बानी का मकसद नहीं है, बल्कि कुर्बान किए गए जानवर के हर बाल के बदले अल्लाह एक नेकी देते हैं और इस जानवर के खून का कतरा जमीन पर गिरने से पहले ही कबूल हो जाता है। मुसलमानों को चाहिए कि खुशदिली के साथ इस हुक्म को पूरा करें। कुर्बानी के वक्त बिरादराने वतन का भी ख्याल रखा जाना चाहिए, ऐसा कोई काम ना हो, जिससे इंसानियत को ठेस पहुंचे। इस्लाम में सबसे ज्यादा तवज्जो इंसानियत को दी गई है। अल्लाह के बंदों को तकलीफ नहीं पहुंचने चाहिए।ईद-उल-अजहा पर गौ मांस की कुर्बानी ना करें। मुफ्ती मोहम्मद सलीम, मौलाना अरशद कासमी तथा मौलाना अजहर उल हक ने कहा कि गाय की कुर्बानी पर प्रतिबंध है। इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि ईद-उल-अजहा पर गाय की कुर्बानी ना करें।कुर्बानी के गोश्त की बेअदबी से भी परहेज करें। त्यौहार के दिन ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को कष्ट पहुंचे। मौलाना नसीम अहमद कासमी ने कहा कि कुर्बानी के लिए ऐसे जानवर को चुना जाए जो पूर्ण रूप से स्वस्थ हो और उस जानवर को कुर्बानी करने वाले ने अपने हाथों से पाला हो। मस्जिद रहीमिया के ईमाम कारी मोहम्मद हारून ने कहा कि कुर्बानी करते वक्त हर तरह से एहतियात बरतें तथा किसी दूसरे की भावनाओं को ठेस ना पहुंचाएं। प्रसिद्ध शायर अफजल मंगलौरी व मुस्लिम विद्वान डॉक्टर नैय्यर काजमी ने कहा कि ईद-उल-अजहा के मौके पर सौहार्दपूर्ण माहौल में संपन्न कराना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। हमें आपसी भाईचारे के साथ एक दूसरे के त्यौहारों में शामिल होना चाहिए और प्यार मोहब्बत का यह पैगाम पूरी दुनिया में जाना चाहिए। रुड़की की जामा मस्जिद में ईद-उल- अजहा की नमाज प्रातः 6:00 बजे तथा प्रमुख ईदगाह में 8:00 बजे होगी।